Wednesday, October 17, 2012

जी न्यूज आरोप के घेरे में

प्रेस आयोग बनाने का सही वक्त


रामबहादुर राय
जी न्यूज चैनल पर नवीन जिंदल की कंपनी ने 100 करोड़ रुपए मांगने का अरोप लगाया है और दिल्ली की काइम बांच में एक एफआईआर भी दज कराई है। आठ दिन चुप रहने के बाद ब्राडकांस्टिग एडिटर्स एसोसिएशन (बीइए) ने एक आपात बैठक बुलाई। और इस मामले पर एक तीन सदस्यीय कमिटि बनाई जो दो हफ्तों में अपनी रिपोर्ट देगी। वैसे जी ने अपने ऊपर लगे आरोपांे को खारिज किया है। लेकिन एफआईआर में जिन सबूतों का जिक्र है उससे जी न्यूज सवालों के घेरे में है
जी न्यूज चैनल और जिंदल की कम्पनी में छिड़े विवाद को दो तरह से देखा जा सकता है। एक, यह न्यूज चैनल की बाबत पहला ‘पेड न्यूज’ का उदाहरण माना जा सकता है। दो, अगर सीधे पेड न्यूज न कहें तो यह ब्लैकमेलिंग का मामला कहा जा सकता है। यह देखने वाले पर निर्भर करता है। नवीन जिंदल की कम्पनी ने आरोप लगाया है कि उसके अफसरों से जी न्यूज के प्रतिनिधियों ने 100 करोड़ रुपए मांगे। उस कम्पनी ने हवा में आरोप नहीं लगाया। बकायदे दिल्ली की काइम ब्रांच में एक एफआईआर भी दर्ज कराई है। इस मामले ने ब्राडकांस्टिग एडिटर्स एसोसिएशन (बीइए) की अतंश्चेतना को झकझोर दिया है। उसने एक आपात बैठक बुलाई। अब यह मामला  एक तीन सदस्यीय कमेटी की जांच के अधीन है। और मीडिया में चिंता और चिंतन का विषय बन गई है। चिंता छवि की है और चिंतन इस पर हो रहा है कि मीडिया की साख का क्या होगा? तीन साल पहले अखबारों पर लोकसभा के उम्मीदवारों ने खबरें बेचने के आरोप लगाए। प्रेस परिषद ने जांच की। संसद में सवाल उठा। सरकार ने बहाना बनाया कि उसे जांच रिपोर्ट का इंतजार है। लेकिन सच यह नहीं था। सच यह है कि सरकार मीडिया घरानों को खुली छूट देने के नाम पर कुछ भी कदम नहीं उठा रही है। सवाल बना हुआ है कि मीडिया की नैतिक शक्ति अगर नहीं बचेगी और वह मुनाफे की भेंट चढ़ जाएगी तो लोकतंत्र के एक मजबूत खंभे को ढहने से कौन बचा लेगा?
बीइए के जनरल सेक्रेटरी एन.के. सिंह का कहना है कि एसोसिएशन ने इस मामले को गंभीरता से लिया है। इसका मानना है कि ‘‘मीडिया किसी के भी खिलाफ कुछ दिखाता है और उसके न दिखाने के एवज में विज्ञापन या कुछ और चाहता है तो इस मामले में संपादक की भूमिका संदेह के घेरे में आती है। यह एसोसिएशन टेलीविजन चैनलों के संपादकों की है। यह इसीलिए है कि टेलीविजन में पत्रकारिता के लिए स्थापित मूल्यों की अनदेखी न हो। अगर किसी चैनल में पत्रकारिता के मूल्यों की अनदेखी होती है तो इसके लिए वह सख्त से सख्त कदम उठाएगी।’’
दूसरी तरफ जी न्यूज ने अपने ऊपर लगे आरोपांे को सिरे से खारिज किया है। लेकिन एफआईआर में जिन सबूतों का जिक्र है उससे जी ग्रुप सवालों के घेरे में है। चुनाव के दौरान अखबारों पर तो पेड न्यूज के आरोप लगे थे लेकिन किसी न्यूज चैनल पर खबर न दिखाने के नाम उगाही का यह पहला मामला है जो मीडिया के लिए बेहद ही चिंताजनक है।
यह चिंता उस समय बढ़ जाती है जब मीडिया के हाल के ही उन गौरव क्षणों को हम याद करते हैं। सबसे करीब का क्षण 1987-89 का है। जब ऊंचे पदों पर बैठे लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। उसका संबंध बोफोर्स तोप सौदे की दलाली से था। वह भारतीय राजनीति में एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा। इसका श्रेय अखबारों को जाता है। खासकर इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता अखबार को। इन अखबारों ने पहले खबर छापी और फिर उसका लगातार पीछा किया। जिससे एक वातावरण बना। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमत तैयार हुआ। परिणाम स्वरूप राजीव गांधी को लोकसभा चुनावों में पराजय का मुख देखना पड़ा। वह मीडिया की नैतिक सत्ता की विजय थी। अब फिर दो दशक बाद यह भ्रष्टाचार टूजी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ और कोयला घोटाले के रूप में लौटा है। अब जब भ्रष्टाचार एक बार फिर राजनीति का मुद्दा बना है तो उसे मीडिया भी बखूबी उठा रहा है।
इस समय एक और महत्वपूर्ण बात यह हुई है कि मीडिया की भूमिका प्रमुख हो गई। राजनेताओं को यह लगता है कि मीडिया के बिना उनका काम नहीं चल सकता। यह अलग बात है कि इन दिनों पारंपरिक राजनीतिक दल से अलग हटकर अन्ना और अरविंद आ गए हैं। यानी भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक नया चेहरा आया है। इस तरह भाजपा और वामपंथी पार्टियों के रूप में पारंपरिक राजनीतिक दल भी हाशिए पर आ गए हैं। इस दौर में मीडिया की जरूरत कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है।
लेकिन इस समय मीडिया भी सवालों के घेरे में है। लोग किस पर विश्वास करें और अपना मत सुनिश्चित करें क्योंकि एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। जिस मीडिया को अपनी सशक्त व धारदार भूमिका निभानी चाहिए वह आर्थिक सुधार की दौर में पेड़ से गिरे पत्ते की तरह हवा में उड़ रही है। उसकी न कोई दिशा है और न कोई मंजिल। उसे मुनाफा संचालित कर रहा है। जिसका उपकरण बना है- पेड न्यूज। इस दौर की देन है, राडिया टेप। जिसमें बड़े-बड़े मीडिया के चेहरे बेनकाब हुए। इसी दौर में यह खबर आती है कि भ्रष्टाचार को उजागर करने में जो न्यूज चैनल (जी न्यूज) सबसे आगे दिख रहा था वह अब जांच के अधीन है। क्योंकि खबरें न दिखाने के लिए पैसे मांगने के आरोप से वह घिर गया है।
ध्यान रहे कि पहली बार जी न्यूज ने कांग्रेस के एक मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से टकराने की हिम्मत दिखाई। फिर कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल और विजय दर्डा का नंबर आया। लोग जब जी न्यूज की फर्ज अदायगी के कायल हो रहे थे तभी यह बुरी खबर फैली कि वह तो धंधे का हिस्सा था। लोग हैरान भी हैं और परेशान भी हैं कि आखिर हो क्या रहा है? एक नागरिक सच को कैसे जाने, उसके सामने यही सबसे बड़ा सवाल है। यह भी है कि अगर मीडिया घराने ऐसी करतूतों पर उतरते हैं तो उनके ही संपादकों की जांच का क्या कोई मतलब है? यहीं पर प्रेस आयोग की जरूरत एक बार फिर सरकार के दरवाजे पर दस्तक दे रही है। वह इसलिए कि मीडिया की साख बचाने के लिए कोई ऐसी नियामक संस्था होनी ही चाहिए जो विश्वसनीय हो। इसकी सलाह आज की परिस्थिति में प्रेस आयोग ही दे सकता है। 
सवाल किसी औद्योगिक घराने का कम है और मीडिया का ज्यादा है। जिंदल को तो उसी समय से कोल ब्लॉक मिल रहे हैं जब भाजपा और राजग की सरकार थी। सही मायने कहंे तो 1995 से ही शुरू होता है। जिंदल भले कांग्रेस के सांसद हैं लेकिन इनकी पहचान उद्योगपति की रही है। उस समय उनके पिता थे। कमोबेस हर राजनीतिक दल ने उद्योगपतियों या प्रभावी राजनेताओं को लाइसेंस बांटे हैं। लेकिन मीडिया के लिहाज से महत्वपूर्ण यह है कि जो एफआईआर की कापी बातती है और जो जी न्यूज पर खबरें दिखाई जा रही थी, उसमें विरोधाभास है। जी न्यूज जिस तरह से खबरें ब्रेक कर रहा था। कोल ब्लॉक्स की एक-एक रिपोर्ट दिखाई जा रही थी। इतना ही नहीं कोल ब्लॉक्स को लेकर भारत की पहली सीटीएल परियोजना की पोल खोलता है। इस परियोजना को 2001 में जमीन यह कहकर दी गई कि यह परियोजना देश के लिए जरूरी है। उस प्रोजेक्ट पर दस बरस बाद भी कोई काम नहीं हुआ।
जाहिर है यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध अच्छी खबरें दिखाने की मुहिम थी जो जी न्यूज कर रहा था। मीडिया का यही काम है। निगरानी रखना। जी न्यूज काम कर रहा है। अचानक एक एफआईआर सामने आती है जिसमें यह दर्ज है कि जी न्यूज के संपादक और जी बिजनेस के संपादक सुधीर चौधरी और समीर अहलूवालिया ने जिंदल ग्रुप के अधिकारियों के साथ बैठकें की। यह बैठक इसलिए हुई कि नवीन जिंदल से जी ग्रुप 100 करोड़ की मांग कर रहा था। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि ऊपर के मैनेजमेंट को भी यह पता है। इसलिए एफआईआर में जी ग्रुप के मालिक सुभाष चन्द्रा और उनके बेटे पुनीत गोयनका को भी एक पार्टी बनाया गया है।
मीडिया के सामने यहीं से मुश्किल शुरू होती है खबर को आप दिखा रहे हैं यह मीडिया की जरूरत है। खबर एक्सक्लूसिव है यह मीडिया की और ज्यादा जरूरत है। खबर तथ्यों पर आधारित हो यह बहुत ही जरूरी है। यानी हर लिहाज से कोयला घोटाले को लेकर जी न्यूज का काम शानदार था, लेकिन क्या यह खबरें इसलिए की जा रही थी कि जिसके खिलाफ यह खबरें की जा रही उससे आज नहीं तो कल सौदेबाजी करेंगे, पैसा वसूलेंगे। यह पेड न्यूज से आगे जाने वाली परिस्थितियां हैं। इस घटना में अगर मैंनेजमेंट भी शामिल है तो मतलब स्पष्ट है कि मीडिया को पूरी तरह धंधे में तब्दील करने की स्थिति आ गई है। यह बड़ा साफ तौर पर उभरता है।
वसूली और ब्लैकमेल की जो धाराएं एफआईआर में है वह किसी आम आदमी पर लगा होता तो क्या होता? उसे 24 घंटे के अंदर नोटिस जाता। उसे पूछताछ के लिए बुलाया जाता। अगर वह नहीं आता तो उसे एक दूसरा नोटिस भेजा जाता। अगर वह हाजिर नहीं होता तो उसे अरेस्ट करने का फरमान जारी होता। फिर उसे अरेस्ट कर पूछताछ होती और पूछताछ के बाद बयान रिकार्ड कर सबूत को जांच में भेजते। रिपोर्ट आने पर पूरा मामला कोर्ट में चला जाता। इस सारी कार्रवाई को करने में 15-20 दिन लगता। लेकिन इस मामले एक मीडिया गु्रप के संपादक और मालिक के खिलाफ केस है तो उसे कौन छूएगा? क्योंकि मीडिया की जरूरत सत्ता को भी है और भ्रष्ट होते पुलिस अधिकारियों को भी। यहीं पर सोचने की जरूरत है कि जिस तरह के आरोप संपादक पर लगाए गए उसे आम आदमी की तरह ट्रीट नहीं किया गया। क्योंकि मीडिया ग्रुप को एक आम आदमी की तरह नहीं देखा जा रहा। और ना ही इसे आम रिपोर्ट की तरह।
यही वजह है कि मीडिया पर नकेल करसने या मीडिया के आत्म-विश्लेषण की कोई स्थिति सामने नहीं आती है। आरोप लगने के बाद भी सुधीर चौधरी सस्पेंड नहीं होते। आरोप लगने के बाद भी अभीतक उनपर कोई कार्रवाई नहीं होती है बल्कि मीडिया पर मीडिया के लोगों द्वारा ही निगरानी रखने वाली संस्थाएं भी कोई दबाव नहीं बना पाती कि आपको अपना पद छोड़ देना चाहिए जिससे जांच सही हो सके। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या मीडिया बेलगाम हो गया है? या मीडिया को इसी रूप में रखा जा रहा है। क्या मीडिया ऐसे रहेगा तो सरकार के लिए सहूलियत का काम करेगा? जब भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीति को हिला रहा है, वही भ्रष्टाचार अगर मीडिया में आ जाए तो सत्ता और सरकार का काम और आसान हो जाएगा। या एक तरह की सहमति की स्थिति लाई जा रही है।
सरकार कह सकती है कि मीडिया की निगरानी के लिए मार्कंडेय काटजू की अध्यक्षता में प्रेस परिषद है। वहीं न्यूज चैनलों ने निगरानी के लिए बीइए बना रखा है। कौन नहीं जानता कि प्रेस परिषद काठ का घोड़ा है यानी सजावटी है। इसी तरह बीइए दिखावटी है। असली सवाल यह है कि क्या ये किसी को कानूनी दंड दे सकते हैं। इनकी सुनता कौन है? कोई नहीं, क्योंकि इनके पास कोई अधिकार नहीं है। अगर होता तो जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी बीइए के कोषाध्यक्ष पद से सबसे पहले हटाए जाते। अबतक सुधीर चौधरी से न इस्तीफा दिया गया और न ही बीइए ने इनसे इस्तीफा लिया। अबतक भ्रष्टाचार के जितने भी मामले सामने आए उसमें शरद पवार (आईपीएल), कलमाडी (कॉमनवेल्थ गेम), ए. राजा (टू जी) सहित चिदंबरम से भी इस्तीफा मांगा गया। कोयला गेट में श्रीप्रकाश जायसवाल से भी इस्तीफा मांगा। इस इस्तीफा मांगने वालों में तमाम मीडिया हाउसों के संपादक हैं जो बीइए से जुड़े हुए हैं। जी न्यूज, टाइम्स नाउ, न्यूज 24, आईबीएन 7 सहित सबने इस्तीफा मांगा था। इसका मतलब यह है कि जांच पूरी होने से पहले ही आप इस्तीफा मांग रहे थे कि गड़बड़ी हुई है और जांच होगी। सुधीर की तरह राजा भी यही कह रहा था कि पहले आप जांच करा लो, पहले मुझसे इस्तीफा क्यों मांग रहे हो? क्या आज मीडिया भी उसी कटघरे में आकर खड़ा हो गया है। मीडिया के सामने बड़ा सवाल यह है कि मीडिया पहले अपने को पाक-साफ दिखाए। क्योंकि मीडिया की जिम्मेदारी तो ज्यादा बड़ी है। मीडिया घराने का मालिक फंस रहा है तो उसे कोई न कोई निर्णय लेना ही होगा। लेना ही चाहिए क्यांेकि सवाल पूरे मीडिया इथिक्स का है। मीडिया इथिक्स में मीडिया का काम सत्ता में हिस्सेदारी नहीं है बल्कि जनता के साथ खड़े होकर निगरानी रखना है। ऐसा पहली बार हुआ है कि मीडिया इसमें डंवाडोल है। ऐसे में सवाल उठता है क्या यह सिर्फ जी न्यूज की जिम्मेदारी है या उन मीडिया संस्थानों की भी जिम्मेदारी है जिन्हें दबाव बनाना चाहिए लेकिन नहीं बना रहे हैं?
वहीं पहली बार जी में यह प्रयोग हुआ कि संपादक बिजनेस हेड भी होगा। बीइए की बैठक में जो बातें सामने आई है वह यह है कि मैं संपादक के साथ बिजनेस हेड भी हूं तो बिजनेस हेड के नाते विज्ञापन मांगने जाऊंगा ही। बैठक में यह सवाल उठा कि इसका मतलब कि जिस खबर को आप दिखा रहे हो उसमें दिखाए गए पार्टी से आप विज्ञापन मांगने भी चले जाएंगे। अब सवाल यह है कि क्या दोनों पद पर एक ही आदमी रह सकता है? दोनों पदों पर जी ग्रुप ने एक ही आदमी को रखा यह एक बड़ा सवाल है। कोई संपादक खबर को लेकर निर्णय करे और वही आदमी खबर को लेकर बिजनेस का निर्णय करे तो खबर हावी होगा या बिजनेस? स्पष्ट है बिजनेस के लिए खबर हावी होगा और उस खबर से बिजनेस होगा। जी न्यूज से यही खेल चल पड़ा है और यह खेल पेड न्यूज से आगे का सिलसिला है।
सुधीर चौधरी सेे पहले भी एक बार सीबीआई और इंफोर्समेंट डायरेक्टोरेट पूछताछ कर चुकी है। इससे पहले सुधीर लाइव इंडिया में उमा खुराना के मामले में भी चर्चा में आए थे। मीडिया में यह खबर है कि सतीश के. सिंह के जमाने में जी न्यूज ने जो साख कायम की थी उसी साख को भुनाने के लिए सुभाष चंद्रा ने जी न्यूज में सुधीर चौधरी लाए क्योंकि इनकी यही पहचान रही है। इनकी यह पहचान मीडिया और पत्रकारिता के लिहाज से अच्छी नहीं है। फिर भी जी ग्रुप उन्हें संपादक बनाता है। जाहिर है इससे एक समझ तो पैदा होती है कि जी की नीयत ठीक नहीं है।
ऐसे में मीडिया के सामने सवाल उठता है कि आखिर रास्ता क्या है? मीडिया तो साख के भरोसे ही चलती है। जब साख ही नहीं है तो मीडिया क्या है? इस दौर में क्या यह मान लिया गया है कि मीडिया एक धंधा है। इससे पहले मीडिया साख और पत्रकार से जुड़ा होता था, क्या अब यह बिजनेस से जुड़ गया है। दूसरी बात यह है कि इस दौर में बड़े मीडिया घरानों और सरकार में एक अलिखित सहमति भी है। इसलिए सरकार जो भी नीति लाती है उसे पहले मीडिया सहमति प्रदान करती है। वह सहमति इसलिए प्रदान करती है कि इससे उसे भी लाभ मिले। पहले विदेशी पैसा आया, उसके बाद आर्थिक सुधार और अब एफडीआई का मसला आया। आम आदमी पर जो भी बोझ पर रहा है उस पर मीडिया के एक वर्ग की सहमति है।
प्रेस घरानों की सूचनाएं नहीं आ पाती हैं। किसी भी मीडिया घराने में पारदर्शिता का अभाव है। अबतक सिर्फ मंत्रियों की संपत्ति का ब्योरा ही आ पाया है। अगर कोई मीडिया घराना भाजपा या कांग्रेस के सांसद का है तो यह लिखकर आना चाहिए। अगर किसी मीडिया घराने में किसी कॉरपोरेट हाउस का पैसा लगा है तो उसे भी बताया जाना चाहिए। कहने का मतलब है कि मीडिया घराने इसे बिजनेस और सत्ता से जुड़ने का जरिया बना लिया है। यही वजह है कि 20 वर्ष पुराना जी ग्रुप जिसके नौ चैनल हैं। अगर वह कोई निर्णय नहीं लेगा तो बाकी संस्थान भी चुप रहेंगे। अगर सूचना मंत्रालय चाहे तो कल ही जी ग्रुप को नोटिस भेज सकता है कि आप खबरों के नाम पर उगाही कर रहे हैं। अगर यह उगाही इस तरह खुले तौर पर होने लगेगी तो रास्ता कहां बचेगा?
साफ है कि एक विशेष परिस्थिति पैदा हो गई है। आम जन के अलावा उन पत्रकारों के सामने भी बड़ा धर्म संकट है जो पत्रकारिता में आदर्श बोध से प्रेरित होकर आए हैं। वह तभी बच सकेगा जब पारदर्शिता और साख की रक्षा का एक वैधानिक उपाय किया जाए। इसी का दूसरा पहलू एक विकट प्रश्न खड़ा करता है कि सरकार और मीडिया घराने अपने निहित स्वार्थ पर एक आम सहमति बना लेते हैं जब उन्हें इसकी जरूरत पड़ती है। लेकिन सरकार और मीडिया घराने ही देश नहीं हैं। और उन्हें ही लोकतंत्र नहीं माना जा सकता। उनकी स्थिति लोकतंत्र में जरूरी उपकरण के तौर पर है। जिसमें समय-समय पर सुधार होते रहना चाहिए। नहीं तो जनता भी आवाज उठाएगी कि सरकार की तरह मीडिया भी भ्रष्ट है। ऐसे समय में सरकार और मीडिया से ही यह पहल होनी चाहिए कि प्रेस आयोग वक्त का तकाजा है जिसे अब टाला नहीं जा सकता। प्रेस आयोग यानी नीति नियामक सलाह का मंच।

Friday, April 20, 2012

देवासुर नहीं नारद संग्राम


रामबहादुर राय
 संतोष भारतीय ने जो विवरण दिया है वह यह साबित करने के लिए काफी है कि जिस आधार पर इंडियन एक्सप्रेस ने ‘सैनिक विद्रोह’ का संकेत देने वाला ‘सी’ शब्द अपने पाठकों के गले उतारा वह वास्तव में था ही नहीं। फिर सवाल घूमकर जहां पहुंचता है वह यह है कि क्या इंडियन एक्सप्रेस ने सचमुच वह स्टोरी ‘हथियारों की लॉबी, अमेरिका, अंडरवर्ल्ड’ के प्रभाव में छापी है, जैसा कि चौथी दुनिया ने आरोप लगाया है।
आदर देना और वक्त के तकाजे पर इज्जत उतार लेना कोई संतोष भारतीय से सीखे। अगर लीक पर चलने की आदत होती तो संतोष ‘भारतीय’ नहीं, भदौरिया होते। उन्होंने साबित कर दिया है कि वे भारतीय हैं। अब यही जिम्मा उन्होंने उन लोगों पर छोड़ा है जिनको संतोष भारतीय ने ‘पत्रकारिता के कुरूक्षेत्र’ में ललकारा है। चुनौती उन्हें दी है जिनकी साख और धाक का रामनाथ गोयनका के जमाने में लोहा माना जाता था। जमाना बदलता है तो क्या जमीर भी बदल जाती है? यही सवाल संतोष भारतीय ने अपने अखबार की कवर स्टोरी- ‘भारतीय सेना को बदनाम करने की साजिश का पर्दाफाश’, में उठाया है।
पहले वह हिस्सा पढ़िए जो संतोष भारतीय की कवर स्टोरी में है- ‘बीते चार अप्रैल को इंडियन एक्सप्रेस के फ्रंट पेज पर पूरे पन्ने की रिपोर्ट छपी, जिसमें देश को बताया गया कि 16 जनवरी को भारतीय सेना ने विद्रोह की तैयारी कर ली थी। इस रिपोर्ट से लगा कि भारतीय सेना देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को समाप्त कर फौजी तानाशाही लाना चाहती है।’ इसके बाद संतोष भारतीय की टिप्पणी है कि ‘लेकिन तीन घंटे बीतते-बीतते साफ हो गया कि यह रिपोर्ट झूठी है, बकवास है, किसी खास व नापाक इरादे से छापी गई है और इसे छपवाने के पीछे एक बड़ा गैंग है।’ जिस दिन यानी 13 अप्रैल को यह रिपोर्ट चौथी दुनिया की वेबसाइट पर आई तो दिल्ली में पत्रकारों को एक नया मसाला मिल गया। जिधर देखो उधर ही इसकी चर्चा थी। कहा तो यहां तक जाता है कि अंग्रेजी अखबारों के दफ्तरों में उस दिन देर शाम तक इसका वाचन किया जाता रहा। कुछ लोग मानते हैं कि वाचन नहीं, वहां पाठ हो रहा था। भारतीय परंपरा में पाठ उसे कहते हैं जिसे बार-बार पढ़ना होता है।
उस दिन रिपोर्ट के बारे में जो सूचनाएं मिली उससे हर किसी पत्रकार को उम्मीद थी और उसने अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस को बड़ी उत्सुकता से देखा और पढ़ा। वह देखना चाहता था कि एक्सप्रेस ने अपनी स्टोरी का फॉलो-अप क्या किया है। हर पाठक और उस पत्रकार को घोर निराशा हुई कि एक्सप्रेस ने अपनी खबर को मानों भुला देना ही बेहतर समझा है। ऐसा होना नहीं चाहिए। इंडियन एक्सप्रेस अपनी स्टोरी पर कायम है, यह कहने भर से काम नहीं चलेगा। उसे अपने पाठकों को साथ लेना होगा जिसके लिए जरूरी है कि वह बताए कि उस पर लगे आरोप गलत हैं। यह तथ्यों को सामने लाकर ही किया जा सकता है नहीं तो माना जाएगा कि वह इसमें इस्तेमाल हो गया है।
संतोष भारतीय ने छोटी स्टोरी नहीं लिखी है। वह करीब आठ हजार शब्दों की है। जिसमें उन्होंने शेखर गुप्त का एक चित्र खींचा है जो लक्ष्मण रेखा के अंदर और बाहर का है। सवाल किसी व्यक्ति का नहीं है, पत्रकारिता के उस किले का है जो अबतक अजेय था। संतोष भारतीय ने जो विवरण दिया है वह यह साबित करने के लिए काफी है कि जिस आधार पर इंडियन एक्सप्रेस ने ‘सैनिक विद्रोह’ का संकेत देने वाला ‘सी’ शब्द अपने पाठकों के गले उतारा वह वास्तव में था ही नहीं। फिर सवाल घूमकर जहां पहुंचता है वह यह है कि क्या इंडियन एक्सप्रेस ने सचमुच वह स्टोरी ‘हथियारों की लॉबी, अमेरिका, अंडरवर्ल्ड’ के प्रभाव में छापी है, जैसा कि चौथी दुनिया ने आरोप लगाया है।
संतोष भारतीय ने पहले पूछा है कि शेखर गुप्ता ने वह स्टोरी चार अप्रैल को ही क्यों छापा? इसका उन्होंने जवाब दिया है कि ‘इसलिए कि इस पीआईएल से मीडिया और देश की जनता का ध्यान हटाना जरूरी था।’ वहीं वे यह वाक्य भी जोड़ते हैं कि ‘देश का ध्यान इन सवालों से हटाने के लिए इंडियन एक्सप्रेस ने उस खबर को छपवाया गया।’ यहीं पर शेखर गुप्ता के संपादकीय नेतृत्व पर उन्होंने यह लिखकर सवाल उठाया है कि जब 22 मार्च को आपको पता चल गया था और दो अप्रैल को आईबी का खुलासा आ गया था तो आपने ये स्टोरी क्यों की?’
संतोष भारतीय ने लिखा है कि ‘मैं आपको बता रहा हूं कि शेखर गुप्ता साहब ने ऐसा क्यों किया।’ यह बताते हुए उन्होंने जो वर्णन किया है उसे रक्षा सौदे की दुनिया में चंडीगढ़ लॉबी के नाम से जाना जाता है। लेकिन जो नई बात चौथी दुनिया ने बताई है वह मजेदार है। वह यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कलकत्ता यात्रा में उनसे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह मिले। प्रधानमंत्री की बहन के घर डिनर पर मुलाकात हुई। उसमें ले. जनरल बिक्रम सिंह भी शामिल थे। इस सूचना से यह धारणा पुष्ट होती है कि जनरल बिक्रम सिंह को सेनाध्यक्ष बनाने के लिए जनरल वी.के. सिंह को समय से पहले रिटायर किया जा रहा है। चौथी दुनिया ने यह बताते हुए एक तथ्य को छिपा लिया है कि वह डिनर कब हुआ था?
दूसरी बात जो छिपा ली गई है वह उस मंत्री का नाम है जो चौथी दुनिया के मुताविक साजिश का सूत्रधार है। लेकिन इशारे से उन्होंने बता दिया है कि वे कौन हैं। मेरी नजर में इस पूरी कहानी में सबसे महत्वपूर्ण दो बात है। एक यह कि रीडिफ वेबसाइट ने 13 मार्च को ही स्टोरी कर दी थी। दूसरा मुद्दा हमारी सेना की युद्ध संबंधी वास्तविकताओं का है। यह जनरल वी.के. सिंह की उन चिट्ठिियों के लीक होने से उभरा है।