Wednesday, October 17, 2012

जी न्यूज आरोप के घेरे में

प्रेस आयोग बनाने का सही वक्त


रामबहादुर राय
जी न्यूज चैनल पर नवीन जिंदल की कंपनी ने 100 करोड़ रुपए मांगने का अरोप लगाया है और दिल्ली की काइम बांच में एक एफआईआर भी दज कराई है। आठ दिन चुप रहने के बाद ब्राडकांस्टिग एडिटर्स एसोसिएशन (बीइए) ने एक आपात बैठक बुलाई। और इस मामले पर एक तीन सदस्यीय कमिटि बनाई जो दो हफ्तों में अपनी रिपोर्ट देगी। वैसे जी ने अपने ऊपर लगे आरोपांे को खारिज किया है। लेकिन एफआईआर में जिन सबूतों का जिक्र है उससे जी न्यूज सवालों के घेरे में है
जी न्यूज चैनल और जिंदल की कम्पनी में छिड़े विवाद को दो तरह से देखा जा सकता है। एक, यह न्यूज चैनल की बाबत पहला ‘पेड न्यूज’ का उदाहरण माना जा सकता है। दो, अगर सीधे पेड न्यूज न कहें तो यह ब्लैकमेलिंग का मामला कहा जा सकता है। यह देखने वाले पर निर्भर करता है। नवीन जिंदल की कम्पनी ने आरोप लगाया है कि उसके अफसरों से जी न्यूज के प्रतिनिधियों ने 100 करोड़ रुपए मांगे। उस कम्पनी ने हवा में आरोप नहीं लगाया। बकायदे दिल्ली की काइम ब्रांच में एक एफआईआर भी दर्ज कराई है। इस मामले ने ब्राडकांस्टिग एडिटर्स एसोसिएशन (बीइए) की अतंश्चेतना को झकझोर दिया है। उसने एक आपात बैठक बुलाई। अब यह मामला  एक तीन सदस्यीय कमेटी की जांच के अधीन है। और मीडिया में चिंता और चिंतन का विषय बन गई है। चिंता छवि की है और चिंतन इस पर हो रहा है कि मीडिया की साख का क्या होगा? तीन साल पहले अखबारों पर लोकसभा के उम्मीदवारों ने खबरें बेचने के आरोप लगाए। प्रेस परिषद ने जांच की। संसद में सवाल उठा। सरकार ने बहाना बनाया कि उसे जांच रिपोर्ट का इंतजार है। लेकिन सच यह नहीं था। सच यह है कि सरकार मीडिया घरानों को खुली छूट देने के नाम पर कुछ भी कदम नहीं उठा रही है। सवाल बना हुआ है कि मीडिया की नैतिक शक्ति अगर नहीं बचेगी और वह मुनाफे की भेंट चढ़ जाएगी तो लोकतंत्र के एक मजबूत खंभे को ढहने से कौन बचा लेगा?
बीइए के जनरल सेक्रेटरी एन.के. सिंह का कहना है कि एसोसिएशन ने इस मामले को गंभीरता से लिया है। इसका मानना है कि ‘‘मीडिया किसी के भी खिलाफ कुछ दिखाता है और उसके न दिखाने के एवज में विज्ञापन या कुछ और चाहता है तो इस मामले में संपादक की भूमिका संदेह के घेरे में आती है। यह एसोसिएशन टेलीविजन चैनलों के संपादकों की है। यह इसीलिए है कि टेलीविजन में पत्रकारिता के लिए स्थापित मूल्यों की अनदेखी न हो। अगर किसी चैनल में पत्रकारिता के मूल्यों की अनदेखी होती है तो इसके लिए वह सख्त से सख्त कदम उठाएगी।’’
दूसरी तरफ जी न्यूज ने अपने ऊपर लगे आरोपांे को सिरे से खारिज किया है। लेकिन एफआईआर में जिन सबूतों का जिक्र है उससे जी ग्रुप सवालों के घेरे में है। चुनाव के दौरान अखबारों पर तो पेड न्यूज के आरोप लगे थे लेकिन किसी न्यूज चैनल पर खबर न दिखाने के नाम उगाही का यह पहला मामला है जो मीडिया के लिए बेहद ही चिंताजनक है।
यह चिंता उस समय बढ़ जाती है जब मीडिया के हाल के ही उन गौरव क्षणों को हम याद करते हैं। सबसे करीब का क्षण 1987-89 का है। जब ऊंचे पदों पर बैठे लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। उसका संबंध बोफोर्स तोप सौदे की दलाली से था। वह भारतीय राजनीति में एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा। इसका श्रेय अखबारों को जाता है। खासकर इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता अखबार को। इन अखबारों ने पहले खबर छापी और फिर उसका लगातार पीछा किया। जिससे एक वातावरण बना। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमत तैयार हुआ। परिणाम स्वरूप राजीव गांधी को लोकसभा चुनावों में पराजय का मुख देखना पड़ा। वह मीडिया की नैतिक सत्ता की विजय थी। अब फिर दो दशक बाद यह भ्रष्टाचार टूजी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ और कोयला घोटाले के रूप में लौटा है। अब जब भ्रष्टाचार एक बार फिर राजनीति का मुद्दा बना है तो उसे मीडिया भी बखूबी उठा रहा है।
इस समय एक और महत्वपूर्ण बात यह हुई है कि मीडिया की भूमिका प्रमुख हो गई। राजनेताओं को यह लगता है कि मीडिया के बिना उनका काम नहीं चल सकता। यह अलग बात है कि इन दिनों पारंपरिक राजनीतिक दल से अलग हटकर अन्ना और अरविंद आ गए हैं। यानी भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक नया चेहरा आया है। इस तरह भाजपा और वामपंथी पार्टियों के रूप में पारंपरिक राजनीतिक दल भी हाशिए पर आ गए हैं। इस दौर में मीडिया की जरूरत कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है।
लेकिन इस समय मीडिया भी सवालों के घेरे में है। लोग किस पर विश्वास करें और अपना मत सुनिश्चित करें क्योंकि एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। जिस मीडिया को अपनी सशक्त व धारदार भूमिका निभानी चाहिए वह आर्थिक सुधार की दौर में पेड़ से गिरे पत्ते की तरह हवा में उड़ रही है। उसकी न कोई दिशा है और न कोई मंजिल। उसे मुनाफा संचालित कर रहा है। जिसका उपकरण बना है- पेड न्यूज। इस दौर की देन है, राडिया टेप। जिसमें बड़े-बड़े मीडिया के चेहरे बेनकाब हुए। इसी दौर में यह खबर आती है कि भ्रष्टाचार को उजागर करने में जो न्यूज चैनल (जी न्यूज) सबसे आगे दिख रहा था वह अब जांच के अधीन है। क्योंकि खबरें न दिखाने के लिए पैसे मांगने के आरोप से वह घिर गया है।
ध्यान रहे कि पहली बार जी न्यूज ने कांग्रेस के एक मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से टकराने की हिम्मत दिखाई। फिर कांग्रेस के सांसद नवीन जिंदल और विजय दर्डा का नंबर आया। लोग जब जी न्यूज की फर्ज अदायगी के कायल हो रहे थे तभी यह बुरी खबर फैली कि वह तो धंधे का हिस्सा था। लोग हैरान भी हैं और परेशान भी हैं कि आखिर हो क्या रहा है? एक नागरिक सच को कैसे जाने, उसके सामने यही सबसे बड़ा सवाल है। यह भी है कि अगर मीडिया घराने ऐसी करतूतों पर उतरते हैं तो उनके ही संपादकों की जांच का क्या कोई मतलब है? यहीं पर प्रेस आयोग की जरूरत एक बार फिर सरकार के दरवाजे पर दस्तक दे रही है। वह इसलिए कि मीडिया की साख बचाने के लिए कोई ऐसी नियामक संस्था होनी ही चाहिए जो विश्वसनीय हो। इसकी सलाह आज की परिस्थिति में प्रेस आयोग ही दे सकता है। 
सवाल किसी औद्योगिक घराने का कम है और मीडिया का ज्यादा है। जिंदल को तो उसी समय से कोल ब्लॉक मिल रहे हैं जब भाजपा और राजग की सरकार थी। सही मायने कहंे तो 1995 से ही शुरू होता है। जिंदल भले कांग्रेस के सांसद हैं लेकिन इनकी पहचान उद्योगपति की रही है। उस समय उनके पिता थे। कमोबेस हर राजनीतिक दल ने उद्योगपतियों या प्रभावी राजनेताओं को लाइसेंस बांटे हैं। लेकिन मीडिया के लिहाज से महत्वपूर्ण यह है कि जो एफआईआर की कापी बातती है और जो जी न्यूज पर खबरें दिखाई जा रही थी, उसमें विरोधाभास है। जी न्यूज जिस तरह से खबरें ब्रेक कर रहा था। कोल ब्लॉक्स की एक-एक रिपोर्ट दिखाई जा रही थी। इतना ही नहीं कोल ब्लॉक्स को लेकर भारत की पहली सीटीएल परियोजना की पोल खोलता है। इस परियोजना को 2001 में जमीन यह कहकर दी गई कि यह परियोजना देश के लिए जरूरी है। उस प्रोजेक्ट पर दस बरस बाद भी कोई काम नहीं हुआ।
जाहिर है यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध अच्छी खबरें दिखाने की मुहिम थी जो जी न्यूज कर रहा था। मीडिया का यही काम है। निगरानी रखना। जी न्यूज काम कर रहा है। अचानक एक एफआईआर सामने आती है जिसमें यह दर्ज है कि जी न्यूज के संपादक और जी बिजनेस के संपादक सुधीर चौधरी और समीर अहलूवालिया ने जिंदल ग्रुप के अधिकारियों के साथ बैठकें की। यह बैठक इसलिए हुई कि नवीन जिंदल से जी ग्रुप 100 करोड़ की मांग कर रहा था। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि ऊपर के मैनेजमेंट को भी यह पता है। इसलिए एफआईआर में जी ग्रुप के मालिक सुभाष चन्द्रा और उनके बेटे पुनीत गोयनका को भी एक पार्टी बनाया गया है।
मीडिया के सामने यहीं से मुश्किल शुरू होती है खबर को आप दिखा रहे हैं यह मीडिया की जरूरत है। खबर एक्सक्लूसिव है यह मीडिया की और ज्यादा जरूरत है। खबर तथ्यों पर आधारित हो यह बहुत ही जरूरी है। यानी हर लिहाज से कोयला घोटाले को लेकर जी न्यूज का काम शानदार था, लेकिन क्या यह खबरें इसलिए की जा रही थी कि जिसके खिलाफ यह खबरें की जा रही उससे आज नहीं तो कल सौदेबाजी करेंगे, पैसा वसूलेंगे। यह पेड न्यूज से आगे जाने वाली परिस्थितियां हैं। इस घटना में अगर मैंनेजमेंट भी शामिल है तो मतलब स्पष्ट है कि मीडिया को पूरी तरह धंधे में तब्दील करने की स्थिति आ गई है। यह बड़ा साफ तौर पर उभरता है।
वसूली और ब्लैकमेल की जो धाराएं एफआईआर में है वह किसी आम आदमी पर लगा होता तो क्या होता? उसे 24 घंटे के अंदर नोटिस जाता। उसे पूछताछ के लिए बुलाया जाता। अगर वह नहीं आता तो उसे एक दूसरा नोटिस भेजा जाता। अगर वह हाजिर नहीं होता तो उसे अरेस्ट करने का फरमान जारी होता। फिर उसे अरेस्ट कर पूछताछ होती और पूछताछ के बाद बयान रिकार्ड कर सबूत को जांच में भेजते। रिपोर्ट आने पर पूरा मामला कोर्ट में चला जाता। इस सारी कार्रवाई को करने में 15-20 दिन लगता। लेकिन इस मामले एक मीडिया गु्रप के संपादक और मालिक के खिलाफ केस है तो उसे कौन छूएगा? क्योंकि मीडिया की जरूरत सत्ता को भी है और भ्रष्ट होते पुलिस अधिकारियों को भी। यहीं पर सोचने की जरूरत है कि जिस तरह के आरोप संपादक पर लगाए गए उसे आम आदमी की तरह ट्रीट नहीं किया गया। क्योंकि मीडिया ग्रुप को एक आम आदमी की तरह नहीं देखा जा रहा। और ना ही इसे आम रिपोर्ट की तरह।
यही वजह है कि मीडिया पर नकेल करसने या मीडिया के आत्म-विश्लेषण की कोई स्थिति सामने नहीं आती है। आरोप लगने के बाद भी सुधीर चौधरी सस्पेंड नहीं होते। आरोप लगने के बाद भी अभीतक उनपर कोई कार्रवाई नहीं होती है बल्कि मीडिया पर मीडिया के लोगों द्वारा ही निगरानी रखने वाली संस्थाएं भी कोई दबाव नहीं बना पाती कि आपको अपना पद छोड़ देना चाहिए जिससे जांच सही हो सके। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या मीडिया बेलगाम हो गया है? या मीडिया को इसी रूप में रखा जा रहा है। क्या मीडिया ऐसे रहेगा तो सरकार के लिए सहूलियत का काम करेगा? जब भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीति को हिला रहा है, वही भ्रष्टाचार अगर मीडिया में आ जाए तो सत्ता और सरकार का काम और आसान हो जाएगा। या एक तरह की सहमति की स्थिति लाई जा रही है।
सरकार कह सकती है कि मीडिया की निगरानी के लिए मार्कंडेय काटजू की अध्यक्षता में प्रेस परिषद है। वहीं न्यूज चैनलों ने निगरानी के लिए बीइए बना रखा है। कौन नहीं जानता कि प्रेस परिषद काठ का घोड़ा है यानी सजावटी है। इसी तरह बीइए दिखावटी है। असली सवाल यह है कि क्या ये किसी को कानूनी दंड दे सकते हैं। इनकी सुनता कौन है? कोई नहीं, क्योंकि इनके पास कोई अधिकार नहीं है। अगर होता तो जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी बीइए के कोषाध्यक्ष पद से सबसे पहले हटाए जाते। अबतक सुधीर चौधरी से न इस्तीफा दिया गया और न ही बीइए ने इनसे इस्तीफा लिया। अबतक भ्रष्टाचार के जितने भी मामले सामने आए उसमें शरद पवार (आईपीएल), कलमाडी (कॉमनवेल्थ गेम), ए. राजा (टू जी) सहित चिदंबरम से भी इस्तीफा मांगा गया। कोयला गेट में श्रीप्रकाश जायसवाल से भी इस्तीफा मांगा। इस इस्तीफा मांगने वालों में तमाम मीडिया हाउसों के संपादक हैं जो बीइए से जुड़े हुए हैं। जी न्यूज, टाइम्स नाउ, न्यूज 24, आईबीएन 7 सहित सबने इस्तीफा मांगा था। इसका मतलब यह है कि जांच पूरी होने से पहले ही आप इस्तीफा मांग रहे थे कि गड़बड़ी हुई है और जांच होगी। सुधीर की तरह राजा भी यही कह रहा था कि पहले आप जांच करा लो, पहले मुझसे इस्तीफा क्यों मांग रहे हो? क्या आज मीडिया भी उसी कटघरे में आकर खड़ा हो गया है। मीडिया के सामने बड़ा सवाल यह है कि मीडिया पहले अपने को पाक-साफ दिखाए। क्योंकि मीडिया की जिम्मेदारी तो ज्यादा बड़ी है। मीडिया घराने का मालिक फंस रहा है तो उसे कोई न कोई निर्णय लेना ही होगा। लेना ही चाहिए क्यांेकि सवाल पूरे मीडिया इथिक्स का है। मीडिया इथिक्स में मीडिया का काम सत्ता में हिस्सेदारी नहीं है बल्कि जनता के साथ खड़े होकर निगरानी रखना है। ऐसा पहली बार हुआ है कि मीडिया इसमें डंवाडोल है। ऐसे में सवाल उठता है क्या यह सिर्फ जी न्यूज की जिम्मेदारी है या उन मीडिया संस्थानों की भी जिम्मेदारी है जिन्हें दबाव बनाना चाहिए लेकिन नहीं बना रहे हैं?
वहीं पहली बार जी में यह प्रयोग हुआ कि संपादक बिजनेस हेड भी होगा। बीइए की बैठक में जो बातें सामने आई है वह यह है कि मैं संपादक के साथ बिजनेस हेड भी हूं तो बिजनेस हेड के नाते विज्ञापन मांगने जाऊंगा ही। बैठक में यह सवाल उठा कि इसका मतलब कि जिस खबर को आप दिखा रहे हो उसमें दिखाए गए पार्टी से आप विज्ञापन मांगने भी चले जाएंगे। अब सवाल यह है कि क्या दोनों पद पर एक ही आदमी रह सकता है? दोनों पदों पर जी ग्रुप ने एक ही आदमी को रखा यह एक बड़ा सवाल है। कोई संपादक खबर को लेकर निर्णय करे और वही आदमी खबर को लेकर बिजनेस का निर्णय करे तो खबर हावी होगा या बिजनेस? स्पष्ट है बिजनेस के लिए खबर हावी होगा और उस खबर से बिजनेस होगा। जी न्यूज से यही खेल चल पड़ा है और यह खेल पेड न्यूज से आगे का सिलसिला है।
सुधीर चौधरी सेे पहले भी एक बार सीबीआई और इंफोर्समेंट डायरेक्टोरेट पूछताछ कर चुकी है। इससे पहले सुधीर लाइव इंडिया में उमा खुराना के मामले में भी चर्चा में आए थे। मीडिया में यह खबर है कि सतीश के. सिंह के जमाने में जी न्यूज ने जो साख कायम की थी उसी साख को भुनाने के लिए सुभाष चंद्रा ने जी न्यूज में सुधीर चौधरी लाए क्योंकि इनकी यही पहचान रही है। इनकी यह पहचान मीडिया और पत्रकारिता के लिहाज से अच्छी नहीं है। फिर भी जी ग्रुप उन्हें संपादक बनाता है। जाहिर है इससे एक समझ तो पैदा होती है कि जी की नीयत ठीक नहीं है।
ऐसे में मीडिया के सामने सवाल उठता है कि आखिर रास्ता क्या है? मीडिया तो साख के भरोसे ही चलती है। जब साख ही नहीं है तो मीडिया क्या है? इस दौर में क्या यह मान लिया गया है कि मीडिया एक धंधा है। इससे पहले मीडिया साख और पत्रकार से जुड़ा होता था, क्या अब यह बिजनेस से जुड़ गया है। दूसरी बात यह है कि इस दौर में बड़े मीडिया घरानों और सरकार में एक अलिखित सहमति भी है। इसलिए सरकार जो भी नीति लाती है उसे पहले मीडिया सहमति प्रदान करती है। वह सहमति इसलिए प्रदान करती है कि इससे उसे भी लाभ मिले। पहले विदेशी पैसा आया, उसके बाद आर्थिक सुधार और अब एफडीआई का मसला आया। आम आदमी पर जो भी बोझ पर रहा है उस पर मीडिया के एक वर्ग की सहमति है।
प्रेस घरानों की सूचनाएं नहीं आ पाती हैं। किसी भी मीडिया घराने में पारदर्शिता का अभाव है। अबतक सिर्फ मंत्रियों की संपत्ति का ब्योरा ही आ पाया है। अगर कोई मीडिया घराना भाजपा या कांग्रेस के सांसद का है तो यह लिखकर आना चाहिए। अगर किसी मीडिया घराने में किसी कॉरपोरेट हाउस का पैसा लगा है तो उसे भी बताया जाना चाहिए। कहने का मतलब है कि मीडिया घराने इसे बिजनेस और सत्ता से जुड़ने का जरिया बना लिया है। यही वजह है कि 20 वर्ष पुराना जी ग्रुप जिसके नौ चैनल हैं। अगर वह कोई निर्णय नहीं लेगा तो बाकी संस्थान भी चुप रहेंगे। अगर सूचना मंत्रालय चाहे तो कल ही जी ग्रुप को नोटिस भेज सकता है कि आप खबरों के नाम पर उगाही कर रहे हैं। अगर यह उगाही इस तरह खुले तौर पर होने लगेगी तो रास्ता कहां बचेगा?
साफ है कि एक विशेष परिस्थिति पैदा हो गई है। आम जन के अलावा उन पत्रकारों के सामने भी बड़ा धर्म संकट है जो पत्रकारिता में आदर्श बोध से प्रेरित होकर आए हैं। वह तभी बच सकेगा जब पारदर्शिता और साख की रक्षा का एक वैधानिक उपाय किया जाए। इसी का दूसरा पहलू एक विकट प्रश्न खड़ा करता है कि सरकार और मीडिया घराने अपने निहित स्वार्थ पर एक आम सहमति बना लेते हैं जब उन्हें इसकी जरूरत पड़ती है। लेकिन सरकार और मीडिया घराने ही देश नहीं हैं। और उन्हें ही लोकतंत्र नहीं माना जा सकता। उनकी स्थिति लोकतंत्र में जरूरी उपकरण के तौर पर है। जिसमें समय-समय पर सुधार होते रहना चाहिए। नहीं तो जनता भी आवाज उठाएगी कि सरकार की तरह मीडिया भी भ्रष्ट है। ऐसे समय में सरकार और मीडिया से ही यह पहल होनी चाहिए कि प्रेस आयोग वक्त का तकाजा है जिसे अब टाला नहीं जा सकता। प्रेस आयोग यानी नीति नियामक सलाह का मंच।

Friday, April 20, 2012

देवासुर नहीं नारद संग्राम


रामबहादुर राय
 संतोष भारतीय ने जो विवरण दिया है वह यह साबित करने के लिए काफी है कि जिस आधार पर इंडियन एक्सप्रेस ने ‘सैनिक विद्रोह’ का संकेत देने वाला ‘सी’ शब्द अपने पाठकों के गले उतारा वह वास्तव में था ही नहीं। फिर सवाल घूमकर जहां पहुंचता है वह यह है कि क्या इंडियन एक्सप्रेस ने सचमुच वह स्टोरी ‘हथियारों की लॉबी, अमेरिका, अंडरवर्ल्ड’ के प्रभाव में छापी है, जैसा कि चौथी दुनिया ने आरोप लगाया है।
आदर देना और वक्त के तकाजे पर इज्जत उतार लेना कोई संतोष भारतीय से सीखे। अगर लीक पर चलने की आदत होती तो संतोष ‘भारतीय’ नहीं, भदौरिया होते। उन्होंने साबित कर दिया है कि वे भारतीय हैं। अब यही जिम्मा उन्होंने उन लोगों पर छोड़ा है जिनको संतोष भारतीय ने ‘पत्रकारिता के कुरूक्षेत्र’ में ललकारा है। चुनौती उन्हें दी है जिनकी साख और धाक का रामनाथ गोयनका के जमाने में लोहा माना जाता था। जमाना बदलता है तो क्या जमीर भी बदल जाती है? यही सवाल संतोष भारतीय ने अपने अखबार की कवर स्टोरी- ‘भारतीय सेना को बदनाम करने की साजिश का पर्दाफाश’, में उठाया है।
पहले वह हिस्सा पढ़िए जो संतोष भारतीय की कवर स्टोरी में है- ‘बीते चार अप्रैल को इंडियन एक्सप्रेस के फ्रंट पेज पर पूरे पन्ने की रिपोर्ट छपी, जिसमें देश को बताया गया कि 16 जनवरी को भारतीय सेना ने विद्रोह की तैयारी कर ली थी। इस रिपोर्ट से लगा कि भारतीय सेना देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को समाप्त कर फौजी तानाशाही लाना चाहती है।’ इसके बाद संतोष भारतीय की टिप्पणी है कि ‘लेकिन तीन घंटे बीतते-बीतते साफ हो गया कि यह रिपोर्ट झूठी है, बकवास है, किसी खास व नापाक इरादे से छापी गई है और इसे छपवाने के पीछे एक बड़ा गैंग है।’ जिस दिन यानी 13 अप्रैल को यह रिपोर्ट चौथी दुनिया की वेबसाइट पर आई तो दिल्ली में पत्रकारों को एक नया मसाला मिल गया। जिधर देखो उधर ही इसकी चर्चा थी। कहा तो यहां तक जाता है कि अंग्रेजी अखबारों के दफ्तरों में उस दिन देर शाम तक इसका वाचन किया जाता रहा। कुछ लोग मानते हैं कि वाचन नहीं, वहां पाठ हो रहा था। भारतीय परंपरा में पाठ उसे कहते हैं जिसे बार-बार पढ़ना होता है।
उस दिन रिपोर्ट के बारे में जो सूचनाएं मिली उससे हर किसी पत्रकार को उम्मीद थी और उसने अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस को बड़ी उत्सुकता से देखा और पढ़ा। वह देखना चाहता था कि एक्सप्रेस ने अपनी स्टोरी का फॉलो-अप क्या किया है। हर पाठक और उस पत्रकार को घोर निराशा हुई कि एक्सप्रेस ने अपनी खबर को मानों भुला देना ही बेहतर समझा है। ऐसा होना नहीं चाहिए। इंडियन एक्सप्रेस अपनी स्टोरी पर कायम है, यह कहने भर से काम नहीं चलेगा। उसे अपने पाठकों को साथ लेना होगा जिसके लिए जरूरी है कि वह बताए कि उस पर लगे आरोप गलत हैं। यह तथ्यों को सामने लाकर ही किया जा सकता है नहीं तो माना जाएगा कि वह इसमें इस्तेमाल हो गया है।
संतोष भारतीय ने छोटी स्टोरी नहीं लिखी है। वह करीब आठ हजार शब्दों की है। जिसमें उन्होंने शेखर गुप्त का एक चित्र खींचा है जो लक्ष्मण रेखा के अंदर और बाहर का है। सवाल किसी व्यक्ति का नहीं है, पत्रकारिता के उस किले का है जो अबतक अजेय था। संतोष भारतीय ने जो विवरण दिया है वह यह साबित करने के लिए काफी है कि जिस आधार पर इंडियन एक्सप्रेस ने ‘सैनिक विद्रोह’ का संकेत देने वाला ‘सी’ शब्द अपने पाठकों के गले उतारा वह वास्तव में था ही नहीं। फिर सवाल घूमकर जहां पहुंचता है वह यह है कि क्या इंडियन एक्सप्रेस ने सचमुच वह स्टोरी ‘हथियारों की लॉबी, अमेरिका, अंडरवर्ल्ड’ के प्रभाव में छापी है, जैसा कि चौथी दुनिया ने आरोप लगाया है।
संतोष भारतीय ने पहले पूछा है कि शेखर गुप्ता ने वह स्टोरी चार अप्रैल को ही क्यों छापा? इसका उन्होंने जवाब दिया है कि ‘इसलिए कि इस पीआईएल से मीडिया और देश की जनता का ध्यान हटाना जरूरी था।’ वहीं वे यह वाक्य भी जोड़ते हैं कि ‘देश का ध्यान इन सवालों से हटाने के लिए इंडियन एक्सप्रेस ने उस खबर को छपवाया गया।’ यहीं पर शेखर गुप्ता के संपादकीय नेतृत्व पर उन्होंने यह लिखकर सवाल उठाया है कि जब 22 मार्च को आपको पता चल गया था और दो अप्रैल को आईबी का खुलासा आ गया था तो आपने ये स्टोरी क्यों की?’
संतोष भारतीय ने लिखा है कि ‘मैं आपको बता रहा हूं कि शेखर गुप्ता साहब ने ऐसा क्यों किया।’ यह बताते हुए उन्होंने जो वर्णन किया है उसे रक्षा सौदे की दुनिया में चंडीगढ़ लॉबी के नाम से जाना जाता है। लेकिन जो नई बात चौथी दुनिया ने बताई है वह मजेदार है। वह यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कलकत्ता यात्रा में उनसे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह मिले। प्रधानमंत्री की बहन के घर डिनर पर मुलाकात हुई। उसमें ले. जनरल बिक्रम सिंह भी शामिल थे। इस सूचना से यह धारणा पुष्ट होती है कि जनरल बिक्रम सिंह को सेनाध्यक्ष बनाने के लिए जनरल वी.के. सिंह को समय से पहले रिटायर किया जा रहा है। चौथी दुनिया ने यह बताते हुए एक तथ्य को छिपा लिया है कि वह डिनर कब हुआ था?
दूसरी बात जो छिपा ली गई है वह उस मंत्री का नाम है जो चौथी दुनिया के मुताविक साजिश का सूत्रधार है। लेकिन इशारे से उन्होंने बता दिया है कि वे कौन हैं। मेरी नजर में इस पूरी कहानी में सबसे महत्वपूर्ण दो बात है। एक यह कि रीडिफ वेबसाइट ने 13 मार्च को ही स्टोरी कर दी थी। दूसरा मुद्दा हमारी सेना की युद्ध संबंधी वास्तविकताओं का है। यह जनरल वी.के. सिंह की उन चिट्ठिियों के लीक होने से उभरा है।

Monday, November 15, 2010

गपशप जिसे कांग्रेस ले उडी


संघ के देशव्यापी कार्यक्रम के तहत राजधानी भोपाल के लीली टॉकिज के सामने दो घंटे का धरना दिया गया। इसमें संघ के सबसे वरिष्ठ कार्यकर्ता के रूप में संघ के पूर्व सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन मंच पर मौजूद थे। लेकिन संघ ने अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए मंच से उनका भाषण नहीं करवाया। धरना समाप्त होने के बाद कुछ पत्रकारों ने उनसे अनौपचारिक गपशप की जिसे कांग्रेस ले उड़ीकेंद्र सरकार द्वारा संघ पर भगवा आतंकवाद का आरोप लगाने और बिना सबूत के कुछ बम धमाके में में संघ के लोगों को फंसाने की साजिश के खिलाफ 10 नवंबर को संघ के देशव्यापी कार्यक्रम के तहत राजधानी भोपाल के लीली टॉकिज के सामने दो घंटे का धरना दिया गया। इसमें संघ के सबसे वरिष्ठ कार्यकर्ता के रूप में संघ के पूर्व सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन मंच पर मौजूद थे। लेकिन संघ ने अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए मंच से उनका भाषण नहीं करवाया। जबकि धरने में शामिल दो हजार से अधिक लोगों को भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सांसद प्रभात झा, पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग, महापौर कृष्णा गौर, प्रांत संघचालक शशिभाई सेठ, संघ के प्रांत कार्यवाह अशोक अग्रवाल, भारतीय किसान संघर्ष के राष्ट्रीय संगठन मंत्री प्रभात केलकर, विश्व हिंदू परिषद के प्रांत संगठन मंत्री रोहित भाई और विद्यार्थी परिषद के विश्वास चौहान ने संबोधित किया।गौरतलब है कि पार्टी गाइड लाइन के अनुसार, इस धरने में सूबे के मुख्यमंत्री और मंत्री उपस्थित नहीं थे। धरने में शामिल होने वालों में संघ के पदाधिकारियों के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा, भाजपा के प्रदेश सह संगठन महामंत्री भगवत शरण माथुर, पूर्व केंद्रीय मंत्री विक्रम वर्मा, भाजपा सांसद अनिल माधव दवे, भाजपा महिला मोर्चा की प्रदेशाध्यक्ष विधायक नीता पटेरिया व प्रदेश उपाध्यक्ष साधना सिंह, गो संवर्द्धन मंडल के अध्यक्ष मेघराज जैन, गायत्री परिवार के शंकर लाल पाटीदार और वरिष्ठ नेता ओम मेहता प्रमुख थे।धरना में सभी वक्ताओं ने संघ को बदनाम करने और हिंदू विरोधी राजनीति करने के लिए कांग्रेस पार्टी और उनकी सरकार को आड़े हाथों लिया। उन लोगों ने कांग्रेस को मुसलमानों का वोट बैंक प्राप्त करने के लिए ओछी राजनीति न करने की नसीहत दी और कहा कि हिंदुत्व के खिलाफ इस तरह के घटिया सियासी हथकंडे को अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इन हथकंडों का न्यायपालिका समेत सभी मंचों से मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा।धरना खत्म होने पर जब संघ के सभी प्रमुख नेता जा चुके थे। और धरना स्थल पर बैठने के लिए बिछी दरी समेटी जा रही थी तो छह-सात पत्रकार वहां मौजूद सुदर्शन के पास पहुंच गए और उनसे कुछ बोलने का आग्रह करने लगे। इन पत्रकारों में दो खबरिया चैनल (टाइम टूडे, ईटीवी) और पांच अखबार (दैनिक भाष्कर, पत्रिका, जनसत्ता और दो अन्य) के पत्रकार थे। हालांकि धरने को लेकर चैनल वाले सुदर्शन की बाइट ले चुके थे। लेकिन धरना के बाद सुदर्शन की अनौपचारिक बातचीत ने विवाद का एक नया अध्याय खोल दिया। उन्होंने जो अनौपचारिक बातचीत में बताया वह इस प्रकार है- ‘एक विदेशी महिला आज पूरे देश को निर्देशित कर रही है। उसके पास इटली की नागरिकता है। हमारे प्रधानमंत्री भी उनके आगे हाथ जोड़कर सब गलत काम कर रहे हैं।’पत्रकारों ने पूछा, ‘आपका इशारा सोनिया गांधी की ओर है?’ उनका जबाब ‘हां’ में था।आगे उन्होंने बताया कि इंदिरा गांधी को यह मालूम हो गया था कि उसके घर में सीआईए की एजेंट है। जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तो इस महिला ने इंदिरा गांधी की हत्या का षडयंत्र रचा। जब इंदिरा की हत्या में शामिल सतवंत सिंह को हटाने की बात हुई तो इसी विदेशी महिला ने यह नहीं होने दिया। इंदिरा गांधी को जब गोली लगी तो उन्हें पास के राममनोहर लोहिया अस्पताल न ले जाकर एम्स ले जाया गया, जो काफी दूर था। डॉक्टरों उनके मरने का कारण ज्यादा खून बह जाना बताया। लेकिन हत्या की घोषणा राजीव गांधी को प्रधानमंत्री की शपथ दिलाने के बाद हुई।पत्रकारों ने फिर पूछा, ‘क्या इसके पीछे सोनिया गांधी थी?’ उनका जबाब था कि उनके अलावा उस समय और कोई नहीं था। इसी तरह राजीव गांधी के श्रीपेरुंबदूर की सभा में जेड प्लस सुरक्षा की मांग की गई थी जो नहीं दी गई। इसके पीछे भी इस महिला का ही हाथ है। क्योंकि राजीव गांधी को भी इस बात की भनक लग गई थी कि यह महिला सीआईए की एजेंट है। इसलिए वे इससे पीछा छुड़ाना चाहते थे। सुदर्शन ने यह सवाल भी उठाया कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी- दोनों का पोस्टमार्टम क्यों नहीं हुआ? साथ ही इस बात की भी जांच नहीं हुई कि राजीव को जेड प्लस सुरक्षा क्यों नहीं दी गई। पत्रकारों ने फिर पूछा, ‘क्या इसमें भी सोनिया का हाथ था?’ उनका जबाब ‘हां’ में था।उन्होंने आगे बताया कि वह अवैध संतान है। उसके जन्म के समय उसका पिता जेल में था। इसे छुपाने के लिए वह अपना जन्मदिन 1944 के बजाय 1946 बताती हैं। इतना ही नहीं उनका नाम असली अनातोनिया है। लूसियाना के एक चर्च में राजीव गांधी ने ईसाई धर्म ग्रहण कर राबर्टो नाम से शादी की। लेकिन बाद में इंदिरा गांधी वैदिक रीति से शादी करवाई।जब पत्रकारों ने उनसे इन बातों का आधार पूछा तो उन्होंने बताया कि मुझे एक कांग्रेसी नेता ने इसकी जानकारी दी है। लेकिन पत्रकारों को उन्होंने कांग्रेसी नेता का नाम नहीं बताया।इस बातचीत को ध्यान से पढ़ें तो सुदर्शन ने कहीं सोनिया का नाम नहीं लिया। लेकिन पत्रकारों ने उनके मुंह से सोनिया का नाम उगलवाया।

Thursday, September 2, 2010

सौदा नहीं पटा तो अभियान


15 सितंबर 2010 को टाइम्स ऑफ इंडिया ‘कॉमनवेल्थ गेम्स’ को लेकर कौन-सी खबर छापेगा? यह अभी से कहना नामुमकिन है। लेकिन, हम आपसे यह कहें कि अगर नौ महीने पहले ‘कॉमनवेल्थ आयोजन समिति’ के साथ ‘टाइम्स ग्रुप’ की डील हो गई होती तो 15 सितंबर को टाइम्स ग्रुप का समाचार पत्र, न्यूज और एफएम चैनल विशेष तौर पर बताता कि दिल्ली और दिल्ली वाले किस तरह कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए पूरी तरह तैयार हैं। यह बताता कि वे न सिर्फ तैयार हैं, बल्कि दुनिया के सामने पहली बार सबसे बेहतरीन आयोजन को अंजाम देने जा रहे हैं। 15 सितंबर को टाइम्स ऑफ इंडिया, नवभारत टाइम्स, महाराष्ट्र टाइम्स, मुंबई मिरर, सांध्य टाइम्स दो से आठ पन्नों का विशेष परिशिष्ट छापते। इसके साथ इकनॉमिक्स टाइम्स में भी खास कवरेज रहता। दूसरी ओर टाइम्स ग्रुप के दोनों न्यूज चैनल कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन समिति के चेयरमैन सुरेश कलमाडी पर खास कार्यक्रम कर खेलों को सफल बनाने में जुटे हर वालंटियर का उत्साह दोगुना करने में जुटा होता।
अगस्त के पहले दो हफ्तों में जब ‘टाइम्स ग्रुप’ के अखबार और ‘न्यूज चैनल’ क्विंस बैटन के दौरान हुए घपलों की पोल पट्टी खोल रहे थे और सुरेश कलमाडी की फजीहत विदेश मंत्रालय से लेकर संसद के भीतर तक हो रही थी...। अगर ‘टाइम्स ग्रुप’ की नौ महीने पहले कॉमनवेल्थ के आयोजन समिति के साथ डील हो गई होती तो इन सारी खबरों के बदले कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर सुरेश कलमाडी की तैयारी की वाहवाही यही ‘टाइम्स ग्रुप’ कर रहा होता। 14 अगस्त को जब कॉमनवेल्थ गेम्स में 50 दिन बचे थे और जिस दिन कॉमनवेल्थ की रुकी घड़ी अखबार से लेकर ‘न्यूज चैनल’ के पर्दे पर बार-बार दिखाई जा रही थी और दिल्ली को कॉमनवेल्थ के लिए सबसे नाकाबिल शहर बताया जा रहा था, अगर नौ महीने पहले वाली डील पक्की हो गई होती तो 14 अगस्त को ‘टाइम्स ग्रुप’ इसी कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर देश-दुनिया का उत्साह दोगुना करने के लिए इसमें शामिल होने वाले एथलिट्स को लेकर परिशिष्ट भी निकालता। साथ ही चैनल में कार्यक्रम भी करता। डील हो गई होती तो दुनिया के टॉप मोस्ट एथलिटों के इंटरव्यू और उनपर केन्द्रित कार्यक्रम दिखाने और छापने का भी आइडिया था, जो कॉमनवेल्थ गेम्स में शामिल होने दिल्ली पहुंचने वाले हैं। यानी बीते डेढ़ महीने में कॉमनवेल्थ को लेकर जो भी खबर टाइम्स ग्रुप में आपने देखी या पढ़ी अगर कॉमनवेल्थ गेम्स का सहयोगी मीडिया पार्टनर ‘टाइम्स ग्रुप’ हो गया होता, तो यह सब देखने-सुनने को नहीं मिलता।
लेकिन मीडिया का मतलब तो ‘टाइम्स ग्रुप’ है नहीं। वह सबसे बड़ा ग्रुप है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। फिर भी यह कैसे कहा जा सकता है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के तमाम घपलों पर डील की कारपेट पड़ गई होती, अगर टाइम्स ग्रुप से डील हो गई होती। जाहिर है ऐसा होता नहीं। या कहें यह सोचना मुश्किल है। लेकिन मीडिया का चेहरा अपने आप में डील के लिए कैसे एक है और डील किस तरह ‘पेड न्यूज’ के आगे की सोच है...। असल कहानी यही है। ठीक दस महीने पहले, कह सकते हैं कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने के करीब एक साल पहले कॉमनवेल्थ गेम्स की आयोजन समिति ने तमाम मीडिया हाउसों को यह कहकर आमंत्रित किया था कि कॉमनवेल्थ गेम्स को सफल बनाना है। इसमें मीडिया की भागीदारी बेहद जरूरी है। जाहिर है कॉमनवेल्थ गेम्स का मतलब अरबों का बजट है तो इसके प्रचार-प्रसार में भी करोड़ों का खर्चा होना ही था। तमाम मीडिया हाउसों में पहली तरंग इसी बात को लेकर उठी कि प्रचार का बजट अगर उनके हिस्से आए तो बात ही क्या है। इसका असर पहली बैठक में नजर आया, जिसमें मीडिया संपादकों से ज्यादा मीडिया हाउसांे के लिए विज्ञापन जुगाड़ने वाले या फिर उन डायरेक्टरांे की फौज दिखाई पड़ी जो हर हाल में कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए अपने-अपने मीडिया हाउसों को सुरेश कलमाडी यानी आयोजन समिति का पार्टनर बनने को बेचैन थे। जाहिर है मीडिया पार्टनर बनने का मतलब एकमुश्त करोड़ों की डील और उसके जरिए कॉमनवेल्थ से जुड़ने वाले प्रोडक्टों से कमाई। इस कमाई के लिए ही हर राष्ट्रीय अखबार और न्यूज चैनलों ने अपने-अपने टेंडर डाले। लेकिन सुरेश कलमाडी प्रचार के इस सच को समझते हैं कि अंग्रेजी मीडिया से उनका काम चल सकता है, क्योंकि देश में पॉलिसी मेकर अंग्रेजी मीडिया को ही देखता है। इसलिए टेंडर आने के बाद सुरेश कलमाडी ने आयोजन समिति के एडीजी कम्युनिकेशन को जो पहला निर्देश दिया। हिन्दी मीडिया को खारिज कर अंग्रेजी मीडिया के टेंडरों को देखने का काम हो। लेकिन सुरेश कलमाडी ने यहां भी यूज-एंड-थ्रो की पॉलिसी अपनाई।
हालांकि जानकारी के मुताबिक, आयोजन समिति में प्रचार-प्रसार देखने वाले कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट में इस बात को लेकर भी चर्चा हुई कि एक को पार्टनर बना कर दूसरे को खारिज करना कहां तक सही होगा। वह भी तब जब मीडिया अपने आप में गला काट खेल टीआरपी से लेकर विज्ञापन पाने तक के लिए कर रही है। पर सुरेश कलमाडी का कहना था, ‘लेकिन टेंडर सभी को नहीं दिया जाता।’ कलमाडी की इस थ्योरी के तहत चर्चा जो भी हुई हो, लेकिन अखबार के मीडिया हाउसों में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को खारिज कर ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ को चुना गया। अंग्रेजी न्यूज चैनलों में एनडीटीवी को खारिज कर ‘सीएनएन-आईबीएन’ को चुना गया। प्रचार-प्रसार के लिए करोड़ों की इस डील में टाइम्स ऑफ इंडिया का 12 करोड़ 19 लाख रुपए का टेंडर खारिज हो गया। हिन्दुस्तान टाइम्स का करीब पौने दस करोड़ का टेंडर मंजूर हो गया। इसी तर्ज पर एनडीटीवी और सीएनएन-आईबीएन का भी खेल हुआ।
यहां सवाल उठाया जा सकता है कि जिन्हें सुरेश कलमाडी ने खारिज किया वह कॉमनवेल्थ गेम्स के पीछे पड़ गए। वे हर घपले को खोद-खोदकर निकालते चले गए। लेकिन घपलों में डूबी कॉमनवेल्थ लूट जब सामने आई उन मीडिया हाउसों की भी मजबूरी बन गई कि वह अपनी संपादकीय छवि के साथ कैसे समझौता करें। इसलिए जो तेवर और तल्खी ‘टाइम्स ग्रुप’ ने दिखाई वह हिन्दुस्तान ने नहीं दिखाई। हिन्दुस्तान टाइम्स ने सिर्फ सूचना के तौर पर कॉमनवेल्थ गेम्स के घपलों को पकड़ा। कुछ यही स्थिति एनडीटीवी और सीएनएन-आईबीएन की रही। एनडीटीवी की रिपोर्ट कॉमनवेल्थ गेम्स के घपलों को सूंड से पकड़ रही थी, तो सीएनएन-आईबीएन ने घपलों को पूंछ से पकड़ा। लेकिन ‘टाइम्स ग्रुप’ के पास चूंकि न्यूज चैनल भी हैं और उसने ‘हर दिन हर घंटे’ जब अपने समूह की खबरों के इनपुट पर सुरेश कलमाडी को घेरना शुरू किया तो उसके सामने कोई टिका नहीं। यहां तक की टाइम्स की रिपोर्ट पर जदयू के सांसद शरद यादव ने लोकसभा में सुरेश कलमाडी को मोटी चमड़ी वाला तक कह दिया। और टाइम्स ग्रुप के उन डायरेक्टरों के लिए भी यह गर्व की बात हुई कि संपादकीय सोच और रिपोर्टरों की रिपोर्ट ने उस कॉमनवेल्थ गेम्स की आयोजन समिति या उसके चेयरमैन सुरेश कलमाडी को पूरी तरह नंगा कर दिया, जिसने उनके टेंडर को खारिज कर दिया था। यानी संपादकीय समझ अगर तेवर वाली और सच को उजागर करने वाली हो तो फिर विज्ञापन मांगने वालों की मूंछ कोई नीचे नहीं कर सकता।
लेकिन मीडिया के भीतर विज्ञापन के नाम पर कैसे संपादकीय सोच को गिरवी रखा जाता है, यह भी संयोग से ‘टाइम्स ग्रुप’ के उस टेंडर से ही उभरता है, जिसमें 12 करोड़ 19 लाख रुपए के बदले करीब 28 पेज विज्ञापन के और बिना विज्ञापन 16 पेज खबरों को देने की बात कही गई। अगर टाइम्स ग्रुप के साथ कॉमनवेल्थ की डील हो गई होती तो 26 जनवरी 2010 से यानी कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने के 250 दिन पहले से प्रचार-प्रसार शुरू होता। इसमें खासतौर से पांच पड़ाव ऐसे रखे गए थे जिस दिन टाइम्स ग्रुप कॉमनवेल्थ के लिए समूचे देश में धूम मचा देता। शुरुआत 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस से होती। फिर 8 मार्च यानी कॉमनवेल्थ दिवस, 25 जून यानी क्विन्स बैटन के भारत की सीमा में प्रवेश का दिन, फिर 14 अगस्त यानी कॉमनवेल्थ से ठीक 50 दिन पहले का जश्न और पांचवा 15 सितंबर यानी सिर्फ 18 दिन पहले कॉमनवेल्थ के लिए तैयार दिल्ली। इन दिनों ‘टाइम्स ग्रुप’ अपने सभी अखबारो में खबरो के पन्नों पर कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए बिना विज्ञापन के दस पेज में ऐसी-ऐसी रिपोर्ट छापता, जिससे कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर ऐसी विश्वसनीयता देश में पैदा होती कि इससे सफल आयोजन और कुछ हो ही नहीं सकता है। लेकिन खबरांे के पन्नों का बिकना यहीं नहीं रुकता, बल्कि टाइम्स ग्रुप छह पन्नें की रिपोर्ट उन 15 से ज्यादा स्टेडियम की तैयारी पर छापता। वह यह कि किस तरह शानदार आयोजन के लिए शानदार स्टेडियम तैयार हैं। यानी अभी जो स्टेडियम की बदहाली की खबरें छप रही हैं और जिस तरह हर स्टेडियम में सीपीडब्ल्यूडी, एनडीएमसी, डीडीए, एमसीडी समेत तमाम संस्थान के घपले की परतंे छिपी हैं। उनके बदले इन स्टेडियम को पूरा करने में लगे हुनर और इसमें इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय स्तर के उत्पाद का जिक्र होता। फिर स्टेडियम जब आयोजन समिति को सौंपा जाता तो स्टेडियम सौंपने के शानदार किस्से बतौर रिपोर्ट अखबारो के पन्नोें पर छपते। यानी यह नहीं रहता कि जिस जवाहरलाल स्टेडियम के पुनर्सुंदरीकरण में साढ़े छह सौ करोड़ लग गए, उस रकम में तीन नए स्टेडियम बन जाते। और प्रत्येक स्टेडियम में बैठने से लेकर पार्किंग तक और सुविधाओं की भरमार स्टेडियम के हर कोने की तस्वीरें छपती। उसकी जानकारी दी जाती।
खास बात यह भी है कि संपादकीय समझ या खबरों का पन्ना विज्ञापन के लिए दांव पर लगाने से समाचार पत्र की छवि घूमिल होती है। इस सोच से इतर विज्ञापन के लिए दिए गए टेंडर में बकायदा यह लिख कर संकेत दिया गया कि विज्ञापन पार्टनर बनाने का मतलब हमारा संपादकीय विभाग भी आपके वाह-वाह में जुट जाएगा। ऐसा नहीं है कि यह समझ सिर्फ टाइम्स ग्रुप की है, बल्कि ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने भी कॉमनवेल्थ गेम्स में मीडिया पार्टनर बनने के लिए खबरांे में कॉमनवेल्थ के वाह-वाह करने के संकेत दिए। संपादक को कितना अपाहिज एक झटके में बना दिया गया, यह इससे भी समझा जा सकता है कि घपलांे या घोटालांे के उभरने से पहले नवंबर 2009 यानी नौ महीने पहले ही कॉमनवेल्थ आयोजन समिति को बाकायदा लिखकर यह भरोसा दिला गया कि कॉमनवेल्थ खेल को लेकर सकारात्मक और सही भूमिका संपादकीय विभाग भी अपनाएगा। साथ ही सभी आम जनता की सोच को भी कॉमनवेल्थ गेम्स से जोड़ने में लगेंगे। कह सकते हैं कि अभी जिस तरह टाइम्स ग्रुप ने समूचे देश को कॉमनवेल्थ लूट से परिचित कराते हुए, कांग्रेस तक को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि सुरेश कलमाडी बतौर कांग्रेसी कॉमनवेल्थ नहीं संभाल रहे हैं। सोनिया गांधी को कहना पड़ा कि 15 अक्टूबर के बाद यानी कॉमनवेल्थ गेम्स समाप्त होने के बाद किसी भी घोटालेबाज को बख्शा नहीं जाएगा। फिर पीएमओ की तरफ से बयान आया कि अब सबकुछ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की निगरानी में होगा। अगर यह सारी खबरें संपादकीय विभाग की मेहनत से नहीं आती और टाइम्स के साथ नवंबर 2009 में ही डील हो गई होती तो 10 नवबंर 2009 को सुरेश कलमाडी के नाम ‘टाइम्स आफ इंडिया’ के डायरेक्टर सी.आर. श्रीनिवासन का पहला पत्र देखना जरूरी होगा। इसमें उन्होने ‘टाइम्स ग्रुप’ को कॉमनवेल्थ आयोजन समिति से मीडिया पार्टनर बनाने की गुहार लगाते हुए अपने स्तर पर बिना कॉमनवेल्थ बजट के लंबी चौड़ी फेरहिस्त के आयोजन की जिम्मेदारी लेते हुए लिखा कि इससे कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर समूचे देश में चार-चांद लग जाएंगे। मसलन डील हो गई होती तो टाइम्स ग्रुप देश भर में पहले से ही कॉमनवेल्थ क्विज से लेकर सेमिनार तक आयोजित करता। इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के वक्ता शिरकत करते। देश के हर बड़े और प्रमुख शहर में ‘दिल्ली चलो’ के नाम से मैराथन होता। काफी टेबल बुक भी निकलती। देश का ऐसा कोई इलाका न छुटता, जहां टाइम्स ग्रुप के पांच अखबारांे की पहुंच नहीं है। इस प्रकार वहां कॉमनवेल्थ पहले ही पहुंच जाता।
अब सवाल है कि क्या सुरेश कलमाडी को ‘टाइम्स ग्रुप’ के साथ समझौता न करना महंगा पड़ा। या फिर अगर वह टाइम्स ग्रुप के साथ समझौता करते तो कोई दूसरा ग्रुप जिसके साथ समझौता न करते वह उनके पीछे पील पड़ता। ऐसे में यदि कलमाडी ही समझदार होते तो शुरू से ही हर मीडिया हाउस को मैनेज करते चलते, जिससे कॉमनवेल्थ लूट की पोटली कम से कम इस रूप में तो नहीं खुलती। हो कुछ भी सकता है। लेकिन इस खेल ने पहली बार यह खुला खेल जरूर सामने ला दिया कि ‘पेड न्यूज’ या उसके आगे का विस्तार अगर खबरों को ही मुनाफे के लिए विज्ञापन डील के जरिए खत्म करना है तो फिर विश्वसनीयता के साथ किसी मीडिया समूह के होने का मतलब महज विज्ञापन नहीं है, बल्कि इसके लिए संपादक और रिपोर्टर चाहिए। क्योंकि यह न होता तो कॉमनवेल्थ लूट का खेल बाहर भी न आ पाता। साथ ही टाइम्स की छवि भी बची न रहती और चौथा खम्भा भी उस लोकतंत्र की रक्षा नहीं कर पाता, जो लोकतंत्र वाकई खतरे में है।
(खबरों के इस गोरखधन्धे पर आप पत्रिका के संपादक की टिप्पणी यहां पढ़ सकते हैं।) (पूरी खबर "प्रथम प्रवक्ता" के १६ सितम्बर के अंक में पढ़ सकते है.)

Saturday, May 29, 2010

सच छुपाने की कोशिश

नीरा राडिया के संचार मंत्री ए. राजा से संबंधों की जांच के दस्तावेजों से एक बड़ा खुलासा मीडिया के कई नामचीन लोगों के बारे में हुआ है। खबरें बनाने वाली मीडिया का अपराध ए. राजा और नीरा राडिया के कारनामों के नीचे कहीं दबता जा रहा है। या यंू कहें की उसे दबाया जा रहा है। स्पेक्ट्रम विवाद में मीडिया के कुछ खास लोग चर्चा में हैं-एनडीटीवी की ग्रुप एडीटर बरखा दत्त, हिंदुस्तान टाइम्स के संपादकीय डायरेक्टर वीर सांघवी, नईदुनिया के मालिक अभय छजलानी, चैनल न्यूज एक्स और इसके प्रमुख जहांगीर पोचा। दस्तावेजों में इस बात का जिक्र है कि वीर सांघवी और बरखा दत्त नीरा राडिया के कहने पर ही ए. राजा को मंत्री बनाए जाने के लिए पैरोकारी कर रहे थे। गत 28 अप्रैल को पायनियर अखबार ने स्पेक्ट्रम घोटाले की खबर छापी थी। इसके एक दिन बाद मुंबई की अखबार ‘मिड डे’ और ‘द हिंदू’ ने अपने वेबसाइट पर भी यह खबर छापी। मिड डे ने भी इन पत्रकारों के नामों का खुलासा नहीं किया। ‘द हिंदू’ ने सभी दस्तावेज वेबसाइट पर डाल दिए, लेकिन शाम होते-होते अखबार के संपादक की तरफ से एक नोटिस जारी किया गया कि इन दस्तावेज की प्रमाणिकता नहीं है। लिहाजा हम इस रिपोर्ट को वापस लेते हैं। ‘द हिंदू’ के प्रधान संपादक एन. राम क्या अपने पाठकों को यह बताएंगे कि उस दस्तावेज की प्रमाणिकता की जरूरत उन्हें इतनी देर से क्यों महसूस हुई? जबकि ये दस्तावेज देखकर ही उन्होंने खबर की मंजूरी दी होगी। जयललिता ने भी इन दस्तावेजों को पत्रकारों में बंटवाया। यह जानना जरूरी है कि ‘एनडीटीवी’ के मालिक प्रणय राय और ‘द हिंदू’ साथ मिलकर चेन्नई में स्थानीय टीवी चैनल चलाते हैं। लिहाजा ‘द हिंदू’ बरखा दत्त और वीर सांघवी का नाम छापने से बचना चाहता था।‘टीवी टुडे’ समूह का अंग्रेजी चैनल ‘हेडलाइनस टुडे’ ने नीरा राडिया और ए. राजा के बातचीत का एक छोटा-सा हिस्सा दिखाया। हालांकि इस चैनल के हरेंद्र बवेजा और आशीष खेतान का दावा है कि उनके पास बातचीत की पूरी टेप मौजूद है, लेकिन जो दर्शकों को दिखाया जा रहा है, वह नीरा राडिया और ए. राजा के बातचीत का एक छोटा-सा हिस्सा है। इन खोजी पत्रकारों से एक सीधा सवाल यह है कि क्या इस घोटाले में अनिल अंबानी और सुनील भारती मित्तल शामिल नहीं हैं? वैसे दस्तावेजों में नीरा राडिया के जहांगीर पोचा और अभय छजलानी से संबंधों का भी जिक्र आया है। एक जगह यह भी लिखा हुआ है कि नीरा राडिया की कंपनी से चैनल और अखबार के पत्रकारों को बहुत सारी सुविधाएं दी जाती रही है। सीबीआई इसकी जांच कर रही है कि वे पत्रकार कौन हैं?

Saturday, November 29, 2008

आज की पत्रकारिता सर्कस की तरह है .

आज की पत्रकारिता सर्कस की तरह है.
वर्तिका नंदा
आज हम पत्रकारिता के जिस दौर से गुजर रहे हैं, वह सर्कस की तरह है. जहां न्यूज में न्यूज कम है और ब्यूज अधिक है. आज पत्रकारिता में सारा खेल टीआरपी और पैसा का है. खासकर न्यूज चैनल टीआरपी के अंधी दौड़ में इतना पागल हो जाते हैं कि उन्हें उचित-अनुचित का खयाल ही नहीं रहता. सबसे जल्दी न्यूज देने के चक्कर में कई बार चैनल गलत न्यूज भी दे देते हैं. इतना ही नहीं वे अपने चैनल पर दर्शकों को इकट्ठा करने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं बाज आते. चाहे इसके चलते कोई व्यक्ति आत्महत्या भी कर ले. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. इसका कारण यह है कि लोग पहले पत्रकारिता में पैशन के चलते आते थे. बाद में यह प्रोफेशन हो गया और अब पत्रकारिता सेनसेशन हो गया है. पहले जहां पत्रकारिता का उद्येश्य समाज का बदलना और उसमें अच्छे संदेशों का संचार करना था, वहीं आज पत्रकारिता के द्वारा समाज में सेनसेशन फैलाने की कोशिश की जाती है. वे यह नहीं सोचते कि इस समाचार को दिखाने से समाज में दंगा भड़क सकता है या सामाजिक विद्वेष फैल सकता है. इसे दूसरे शब्दों में कहें तो आज के न्यूज चैनलों ने दिमाग से काम करना छोड़ दिया है. कारण चाहे जो भी हो लेकिन उन्होंने जिस तरह से खबरों की बमबार्डिंग शुरू की है, उससे आम जनता के अंदर वितृष्णा पैदा हो रही है. वह दिन दूर नहीं जब लोग इन न्यूज चैनलों से किनारा कर लेंगे.
पहले के पत्रकारों में पत्रकारिता का इतना जुनून हुआ करता था कि पत्रकार लोगों के घर-घर जाकर समाचार सुनाया करते थे. आज किसी भी पत्रकार में यह भाव नहीं है. आज पत्रकारिता में लोग समाज कल्याण की भावना से नहीं आते बल्कि ग्लैमर और पैसा के कारण आते हैं. आज जिस तरह से नये-नये लोग इस क्षेत्र में आ रहे हैं, उन सबको ऐसा लगता है कि टीवी पर उन्हें जल्दी पहचान मिलेगी. अगर इन लोगों को यह कह दिया जाए कि टीवी में काम करने से पहले आप एक साल तक अखबार में काम करके आएं तो टीवी में इन युवाओं की जमघट कम हो जायेगी. क्योंकि असली पत्रकारिता अखबार की ही होती है. अखबार में पत्रकार को मेहनत करनी होती है. और आज के युवा मेहनत करने से भागते हैं. इलेक्ट्रानिक में तो पत्रकार एक-दो लोगाें की बाइट ले लिया और दो-चार विजुअल्स ले लिए, बस हो गयी पत्रकारिता. मेरे विचार से पत्रकारिता अगर थोड़ी-बहुत बची हुई है, तो वह अखबार के ही माध्यम से. प्रिंट माध्यम की पत्रकारिता हमेशा अध्ययन, तैयारी और गहराई की मांग करती है. इसमें उनको मेहनत करनी होती है, लेकिन आज के पत्रकार मेहनत करने से बचते हैं. कई बार हमें तब ज्यादा दुख होता है, जब प्रिंट के पत्रकार भी बिना कोई तैयारी के इंटरव्यू के लिए चले आते हैं.
हम सभी जानते हैं कि विकास के साथ-साथ किसी भी चीज में परिपक्वता और समझदारी आती है. लेकिन पत्रकारिता के साथ उल्टा ही हो रहा है. पत्रकारिता अपने विकास के साथ-साथ सोचना-समझना छोड़ दिया है. पत्रकारिता पर सबसे अहम जिम्मेदारी समाज निर्माण की होती है. इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है. लेकिन जिस तरह से यह आजकल हरकत कर रहा है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह अपनी भूमिका और जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहा. अनुशासन पत्रकारिता के लिए उतना ही जरूरी है, जितना किसी भी व्यक्ति के लिए. पत्रकारिता जब तक अनुशासित नहीं होगी, तब तक वह अपनी जिम्मेदारी और उद्देश्यों के प्रति न्याय नहीं कर सकेगी. इसलिए मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि बिना किसी पुख्ता सबूत के संवेदनशील मामलों को मीडिया में ज्यादा हाइप देने से बचें. सरकार को भी ऐसे मामलों में मीडिया पर कड़ा रूख अपनाना चाहिए. अगर कोई पत्रकार जान बूझकर गलत रिपोर्टिंग करता है तो उस पर डंडा अवश्य पड़ना चाहिए. बातचीत- संजीव कुमार

Wednesday, August 13, 2008

गुरूजी ने कहा

उदय प्रकाश की कहानी मैंगोशेकऐसा माना जाता है कि Çहदी के उत्तर आधुनिक रचनाकार उदय प्रकाश हैंण् उत्तर आधुनिक विचारों के केंद्र में बाजार निहित हैण् उन्होंने एक कहानी लिखी है- मैंगोशेकण् उस कहानी में तमाम उत्तर आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया गया हैण् उन तकनीकों के इस्तेमाल से यथार्थ के ब्योरे बहुत ही तीखे और सघन रूप में उरे हैंण्ये तकनीकें यथार्थ को जिस गहराई से उारती है, वह उत्तरआधुनिकता की ही देन हैण् उदय प्रकाश जानते हैं कि हम इस बाजार केंिद्रत ज्ञान से क्या ले सकते हैंण् इस कहानी में बाजार केंिद्रत विचार व्यवस्था पर बड़ा कड़ा प्रहार किया गया हैण् यहां मैं उसके अंतिम अंश का उल्लेख कर रहा हूं- लेकिन सबसे अधिक चौंकाने वाला दस्तावेज पेंटागन का हैण् इथोपिया, घाना, ारत, बांगलादेश, इराक, अफगानिस्तान, बोिज्मया, फिलिस्तीन, श्रीलंका, नामीबिया, ब्राजील समेत 67 देशों में ऐसे बच्चे लगातार जन्म ले रहे हैंण् जिनका सिर तेजी से बड़ा हो रहा है और जिनका दिमाग सबकुछ जानता हैण् वे बच्चों की तरह अबोध और मासूम नहÈ हैंण् इन बच्चों के सिर के ीतर स्थित मस्तिष्क की उम्र उनकी स्वााविक उम्र से कई गुणा ज्यादा बड़ी हैण् लेकिन उसके मस्तिष्क में कई शतािब्दयों की जैविक स्मृतियां मौजूद हैंण् उनके डीएनए अजीब तरीके से एक जैसा हैण् पेंटागन के मुताबिक इस समय की सी देशों की सी सरकारों को इन बड़े सिर वाले बच्चों पर निगाह रखनी होगीण् उनकी आइडेंटीटी यह है- वे गरीब घरों में गंदगी और कुपोषण के बीच पैदा हुए हैंण् उनकी आंखें चÈटियों की तरह लाल है और उन्हें नÈद लगग नहÈ आतÈण्हम आज उदारीकरण और ूमंडलीकरण के पक्षधर हैंण् अपनी सरकार और दुनिया के सरकारों को ी देख रहे हैंण् यह कहानी इतिहास के अंत का नहÈ बल्कि इतिहास में आदमी की नयी ूमिका की तलाश है, जो दिल्ली की मलिन बस्ती जहांगीर पुरी में शुरू होती है और पूरे वैिश्वक स्तर पर प्रतिरोध के स्वर में फैल जाती हैण् ऐसी साहिित्यक रचनाओं की उपलब्धि बहुत बड़ी है और वह स्वाधीनता के लिए लड़ाई के एक नये मोर्चे की तलाश है, जो प्रु शक्तियों के विरुद्ध हैण्(जैसा गुरु जी ने मुझसे कहा)