Saturday, November 29, 2008

आज की पत्रकारिता सर्कस की तरह है .

आज की पत्रकारिता सर्कस की तरह है.
वर्तिका नंदा
आज हम पत्रकारिता के जिस दौर से गुजर रहे हैं, वह सर्कस की तरह है. जहां न्यूज में न्यूज कम है और ब्यूज अधिक है. आज पत्रकारिता में सारा खेल टीआरपी और पैसा का है. खासकर न्यूज चैनल टीआरपी के अंधी दौड़ में इतना पागल हो जाते हैं कि उन्हें उचित-अनुचित का खयाल ही नहीं रहता. सबसे जल्दी न्यूज देने के चक्कर में कई बार चैनल गलत न्यूज भी दे देते हैं. इतना ही नहीं वे अपने चैनल पर दर्शकों को इकट्ठा करने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं बाज आते. चाहे इसके चलते कोई व्यक्ति आत्महत्या भी कर ले. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. इसका कारण यह है कि लोग पहले पत्रकारिता में पैशन के चलते आते थे. बाद में यह प्रोफेशन हो गया और अब पत्रकारिता सेनसेशन हो गया है. पहले जहां पत्रकारिता का उद्येश्य समाज का बदलना और उसमें अच्छे संदेशों का संचार करना था, वहीं आज पत्रकारिता के द्वारा समाज में सेनसेशन फैलाने की कोशिश की जाती है. वे यह नहीं सोचते कि इस समाचार को दिखाने से समाज में दंगा भड़क सकता है या सामाजिक विद्वेष फैल सकता है. इसे दूसरे शब्दों में कहें तो आज के न्यूज चैनलों ने दिमाग से काम करना छोड़ दिया है. कारण चाहे जो भी हो लेकिन उन्होंने जिस तरह से खबरों की बमबार्डिंग शुरू की है, उससे आम जनता के अंदर वितृष्णा पैदा हो रही है. वह दिन दूर नहीं जब लोग इन न्यूज चैनलों से किनारा कर लेंगे.
पहले के पत्रकारों में पत्रकारिता का इतना जुनून हुआ करता था कि पत्रकार लोगों के घर-घर जाकर समाचार सुनाया करते थे. आज किसी भी पत्रकार में यह भाव नहीं है. आज पत्रकारिता में लोग समाज कल्याण की भावना से नहीं आते बल्कि ग्लैमर और पैसा के कारण आते हैं. आज जिस तरह से नये-नये लोग इस क्षेत्र में आ रहे हैं, उन सबको ऐसा लगता है कि टीवी पर उन्हें जल्दी पहचान मिलेगी. अगर इन लोगों को यह कह दिया जाए कि टीवी में काम करने से पहले आप एक साल तक अखबार में काम करके आएं तो टीवी में इन युवाओं की जमघट कम हो जायेगी. क्योंकि असली पत्रकारिता अखबार की ही होती है. अखबार में पत्रकार को मेहनत करनी होती है. और आज के युवा मेहनत करने से भागते हैं. इलेक्ट्रानिक में तो पत्रकार एक-दो लोगाें की बाइट ले लिया और दो-चार विजुअल्स ले लिए, बस हो गयी पत्रकारिता. मेरे विचार से पत्रकारिता अगर थोड़ी-बहुत बची हुई है, तो वह अखबार के ही माध्यम से. प्रिंट माध्यम की पत्रकारिता हमेशा अध्ययन, तैयारी और गहराई की मांग करती है. इसमें उनको मेहनत करनी होती है, लेकिन आज के पत्रकार मेहनत करने से बचते हैं. कई बार हमें तब ज्यादा दुख होता है, जब प्रिंट के पत्रकार भी बिना कोई तैयारी के इंटरव्यू के लिए चले आते हैं.
हम सभी जानते हैं कि विकास के साथ-साथ किसी भी चीज में परिपक्वता और समझदारी आती है. लेकिन पत्रकारिता के साथ उल्टा ही हो रहा है. पत्रकारिता अपने विकास के साथ-साथ सोचना-समझना छोड़ दिया है. पत्रकारिता पर सबसे अहम जिम्मेदारी समाज निर्माण की होती है. इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है. लेकिन जिस तरह से यह आजकल हरकत कर रहा है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह अपनी भूमिका और जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहा. अनुशासन पत्रकारिता के लिए उतना ही जरूरी है, जितना किसी भी व्यक्ति के लिए. पत्रकारिता जब तक अनुशासित नहीं होगी, तब तक वह अपनी जिम्मेदारी और उद्देश्यों के प्रति न्याय नहीं कर सकेगी. इसलिए मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि बिना किसी पुख्ता सबूत के संवेदनशील मामलों को मीडिया में ज्यादा हाइप देने से बचें. सरकार को भी ऐसे मामलों में मीडिया पर कड़ा रूख अपनाना चाहिए. अगर कोई पत्रकार जान बूझकर गलत रिपोर्टिंग करता है तो उस पर डंडा अवश्य पड़ना चाहिए. बातचीत- संजीव कुमार

1 comment:

Harihar said...

अब इस सर्कस और सेन्सेशनल खबर फैलाने के चाव को आस्ट्रेलिया के उदाहरण में देखो। मिडिया में चिल्ल-पो मचाई जा रही है कि आस्ट्रेलिया के सभी भारतियों को मारा और लूटा जा रहा है। मुझे फोन पर फोन आ रहे हैं कि हालत क्या है? क्योंकि मिडिया में काफी अतिशयोक्ति है ।
जो चर्चा चल निकली है वह सही भी है और गलत भी । आक्रमण बेचारे उन विद्यार्थियों पर होता है जो स्टूडेन्ट-विसा लेकर आते हैं, पढ़ने की भारी फ़ीस देते हैं, किसी शोप में काम करके अकेले देर रात ११.०० बजे बाद घर लोकल रेल से आते हैं क्योंकि उनके पास अपनी कार नहीं होती । इन आक्रमण-पीड़ितों में भारतीय विद्यार्थियों का प्रतिशत बहुत ज्यादा है। आक्रमण करने वाले वे छोटे मॊटे लुटेरे होते हैं जो इनसे मोबाइल, पैसे आदि छिन लेते हैं । वारदात दिन-दहाडे या खुले आम नहीं हैं ।
यह सच है कि केवल एक साल में आस्ट्रेलिया में १३०० केस इस प्रकार के हुये हैं जिसमें से अकेले विक्टोरिया राज्य ( जिसमें मेलबर्न है) में १००० से अधिक हुये हैं । पर अधिकांश रूप से यह कानून व सुरक्षा का मामला है

इन लुटेरों के अलावा आस्ट्रेलियावासियों में भारतीयों के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है।